स्वामी दयानंद सरस्वती को किसने और क्यों दिया ज़हर

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Swami Dayanand Saraswati Biography

Story of Swami Dayanand Saraswati

स्वामी दयानंद सरस्वती को आर्य समाज के संस्थापक और आधुनिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्त्रोत के तौर पर जाना जाता है। इन्होंने धार्मिक कर्मकांडों, सामाजिक कुप्रथा और अंग्रेजों का जमकर विरोध किया। इसलिए स्वामी दयानंद को धर्म सुधारक, समाज सुधारक और राष्ट्रप्रेमी के रूप में जाना जाता है। जानते हैं स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान।

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात में हुआ। बताते हैं कि स्वामी दयानंद का जन्म  मूल नक्षत्र में हुआ था इसलिए इनके माता पिता ने मूलशंकर नाम रख दिया। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ अमीर और प्रभावशाली व्यक्ति थे। स्वामी दयानंद बचपन से ही बुद्धिमान बालक थे जिसका परिचय उन्होंने कुछ इस तरह दिया। उन्होंने मात्र पांच साल की उम्र में ही देवनागरी लिपि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था साथ ही सारे वेद याद कर लिये। अपने जीवन से जुड़ी जरूरी घटनाओं के चलते ही वे समाज सुधारक बने।

पहली घटना

स्वामी दयानंद सरस्वती के पिता काफी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक दिन बचपन में दयानंद अपने पिता के साथ शिवरात्रि के दिन मंदिर में रूक गए। उनका सारा परिवार सो चुका था। लेकिन वे जागते रहे। उन्हें लगा कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। लेकिन उन्होंने देखा कि भगवान तो नहीं आये, चूहे जरूर आये। जिनमें से एक बड़ा सा चूहा शिव की मूर्ति के आगे रखा भोग खाने लगा। ये देखकर वे हैरान हो गए। तब उनकी उम्र मात्र 14 वर्ष  थी। वे सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उनका अपने पिता से तर्क वितर्क भी हुआ। उन्होंने कहा कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए। बस तभी से उनका मूर्ति पूजा से विश्वास उठ गया।

दूसरी घटना

जब स्वामी दयानंद 16 साल के हुए तो एक दिन उनके साथ बड़ी दुखद घटना घटी। उनकी छोटी बहन की मौत हो गई। वे अपनी बहन से बेहद प्यार करते थे। इस घटना से पूरा परिवार शोक में डूबा था, घर में मातम छाया था। इसी दौरान स्वामी दयानंद के मन में कई तरह के विचार आने लगे। इस संसार में जो भी आया है, उसे एक ना एक दिन यहां से जाना ही है यानी हर किसी की मृत्यु तय हैं। मौत जीवन का शाश्वत सत्य है। अगर ऐसा है तो फिर शोक किस बात का? क्या इस शोक और विलाप की समाप्ति का कोई उपाय हो सकता है?

तीसरी घटना

दयानंद के जीवन में इसी तरह की एक और घटना घटी जिससे वे परेशान हो गये। दरअसल उनके सामने एक रिश्तेदार ने दम तोड़ दिया। इस दुखद घटना को देखकर उनके मन में अब सिर्फ एक ही विचार उमड़ रहा था कि जब जीवन मिथ्या है और मृत्यु एकमात्र सत्य है। ऐसे में क्या मृत्यु पर विजय नहीं पाई जा सकती? क्या मृत्यु समय के समस्त दुखों से बचा नहीं जा सकता? जिसका जवाब पाने के लिए स्वामी दयानंद इस खोज में निकल पड़े।

आर्य समाज की स्थापना

स्वामी जी एक ईश्वर में विश्वास करते थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 ई. को मुम्बई के गिरगांव में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है कृण्वन्तो विश्वमार्यम् जिसका मतलब हैं विश्व को आर्य बनाते चलो। आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य है शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति। धीरे धीरे इसकी शाखाएं बढ़ती गई। आजादी से पहले आर्य समाज को क्रांतिकारियों का अड्डा कहा जाता था। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज का बड़ा योगदान रहा है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना, विचार, संस्कार मिले।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों का प्रचार करने और लोगों को उनका महत्व समझाने के लिए देश भर में घूमे।  वे जगह जगह जाकर लोगों को वेदों का महत्व समझाते। क्योंकि उन्हें संस्कृत, व्याकरण वेद, शास्त्रों समेत अन्य धार्मिक पुस्तकों का अच्छा ज्ञान था। इसी के चलते वे सन्यासी बने। सन्यास ग्रहण करने के बाद उनके नाम के साथ स्वामी जुड़ गया। और वे स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से जाने गए।

स्वामी दयानंद को जब पता लगा कि धर्म परिवर्तन के मामले बढ़ते जा रहे हैं तब उन्होंने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को फिर से हिंदू बनने की प्रेरणा दी। 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना भी की। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ना सिर्फ हिंदू बल्कि ईसाई और इस्लाम धर्म में फैली बुराइयों का विरोध किया। उन्होंने अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया।

सच्चे देशभक्त

स्वामी दयानंद समाज सुधारक के अलावा सच्चे राष्ट्रवादी थे। उन्होंने ही ‘स्वराज’  का नारा दिया, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। स्वामी दयानंद ने राष्ट्रवादी विचारों, उपदेशों के जरिये युवाओं में देशभक्ती की भावना पैदा की।

हिंदी प्रेमी

स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदी भाषा के समर्थक थे। वे हिंदी को आमजनों की भाषा के तौर पर देखते थे इसलिए उन्होंने अपने ज्यादातर उपदेश हिंदी में ही दिये। उनकी इच्छा थी कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश की एक भाषा हो। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश का प्रकाशन हिंदी भाषा में करवाया।

सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज़

स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और रूढियों को खत्म करने में अहम योगदान दिया। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का काम किया। इसके अलावा स्वामी दयानंद जातिवाद और बाल-विवाह के विरोधी थे। उन्होंने उनका जमकर विरोध किया। और नारी शिक्षा , विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।

देशभर में स्वामी दयानंद की पहचान सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांड का खंडन करने वाले पुरूष के तौर पर होने लगी इसी के चलते उनके दुश्मन भी बढ़ गए। उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। स्वामी दयाननंद को पत्थर मारे गए, नदी में डुबाने की कोशिश की गई। इसी के चलते एक दिन उन्हें किसी ने ज़हर दे दिया जिससे स्वामी दयाननंद की मृत्यु हो गई। अंतिम क्षणों में उनके शब्द थे ”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” यानी विश्व को आर्य बनवाते चलो।प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।

ऐसी थी स्वामी दयानंद सरस्वती की कहानी जो धार्मिक सुधारक, समाज सुधारक, हिंदी प्रेमी होने के साथ साथ सच्चे  देशभक्त थे।

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